मुंबई / महाराष्ट्र : शांतनु देशपांडे, (founder and CEO of Bombay Shaving Company) बॉम्बे शेविंग कंपनी के संस्थापक और सीईओ, ने हाल ही में भारतीय कार्य संस्कृति पर एक तीखी टिप्पणी करते हुए देश की श्रमशक्ति और आर्थिक असमानताओं की कठोर सच्चाइयों को उजागर किया है , उनकी इस स्पष्ट और निडर, तीखी टिप्पणी की पोस्ट ने लिंक्डइन पर बड़ी चर्चा को जन्म दिया है ।
शांतनु देशपांडे ने अपने विचार शेयर करते हुए लिखा है की ” यदि आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित हो जाए, तो 99% लोग अगले दिन काम पर नहीं जाएंगे।” यह बयान भारतीय कार्यबल की मौलिक प्रेरणाओं पर एक गंभीर सवाल खड़ा करता है। उनके अनुसार, काम के प्रति असंतोष न केवल निजी क्षेत्र तक सीमित है, बल्कि सरकारी कर्मचारियों तक में देखा जा सकता है।
भारतीय समाज और आर्थिक असमानता –

शांतनु देशपांडे ने अपनी पोस्ट में भारत में बढ़ती आर्थिक असमानता पर भी जोर दिया है । उन्होंने यह खुलासा किया कि केवल 2,000 परिवार भारत की कुल संपत्ति का 18% नियंत्रित करते हैं, लेकिन देश के कुल कर राजस्व में उनका योगदान 1.8% से भी कम है। यह तथ्य देश के टैक्स सिस्टम और धन के अनुचित वितरण पर भी सवाल खड़ा करता है।
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शांतनु देशपांडे के अनुसार, यह असमानता न केवल सामाजिक स्तर पर ही नहीं बल्कि कामकाजी लोगों के मनोबल पर भी गहरा असर डालती है। जबकी मेहनत के बावजूद भी कर्मचारी अपनी ज़रूरतें पूरी नहीं कर पाते है , तो उनकी मेहनत करने की प्रेरणा कमजोर हो जाती है।
भारतीय कार्य संस्कृति : मेहनत या फिर मजबूरी ?
शांतनु देशपांडे ने भारतीय कार्य संस्कृति में गहराई से मौजूद ‘काम करो , बस जीते जाओ’ की मानसिकता पर भी सवाल उठाया है , उन्होंने इसे एक ऐसी स्थिति बताया जहां पर कर्मचारी अपने काम को केवल एक जिम्मेदारी मानते हैं, न कि अपने जीवन का अभिन्न हिस्सा।
उन्होंने यह भी कहा, “काम के प्रति लगाव और खुशी का स्तर बहुत कम है। ज्यादातर लोग केवल अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए काम करते हैं, न कि अपने करियर में कोई बड़ी उपलब्धि हासिल करने के लिए ” यह बात भारतीय श्रमिकों के जीवन में संतोष की कमी की ओर इशारा करती है।
क्या कहती है जनता ?
शांतनु देशपांडे की इस टिप्पणी ने सोशल मीडिया पर एक बड़ी बहस छेड़ दी है। कुछ लोगों ने उनकी स्पष्टवादिता की तारीफ की, जबकि कई ने इसे कामकाजी वर्ग के संघर्षों के प्रति असंवेदनशील भी बताया है ।
एक यूजर ने यह लिखा है की , “यह सच है कि काम के प्रति भारतीयों का दृष्टिकोण मुख्य रूप से आर्थिक मजबूरी पर आधारित है, लेकिन यह टिप्पणी एक बड़े सामाजिक सुधार की ओर इशारा करती है।”

वहीं, एक अन्य यूजर ने कहा, ” शांतनु देशपांडे ने सही मुद्दा उठाया है, लेकिन यह भी ध्यान देना चाहिए कि आर्थिक असमानता व नौकरी की कमी होना भारतीय श्रमिकों को उनके सपनों का पीछा करने से भी रोकती है।”
सामाजिक सुधार की आवश्यकता-
शांतनु देशपांडे की टिप्पणी ने न केवल कार्य संस्कृति, बल्कि भारत में एक बड़े सामाजिक सुधार की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित किया है। आज के समय में, जब युवा पीढ़ी करियर के बजाय जीवनशैली और खुशी को प्राथमिकता दे रही है,तब यह जरूरी है कि भारतीय कंपनियां भी कार्यस्थल पर संतोष और प्रेरणा को बढ़ावा देने के लिए प्रयास करें।
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देशपांडे के विचार इस बात का संकेत देते हैं कि यदि भारत को एक खुशहाल और प्रगतिशील श्रमशक्ति बनानी है, तो आर्थिक असमानता को खत्म करना और कामकाजी माहौल को बेहतर बनाना बेहद जरूरी है।
शांतनु देशपांडे ने जो सवाल उठाए हैं, वे केवल एक बहस नहीं, बल्कि एक चेतावनी हैं। भारत जैसे तेजी से बढ़ते देश में यह जरूरी है कि आज हम अपनी कार्य संस्कृति पर गंभीरता से विचार करें , आज के समय में, जब आर्थिक सुरक्षा और खुशी दोनों महत्वपूर्ण हैं, यह सोचना अनिवार्य हो जाता है कि हम अपने काम और जीवन को कैसे संतुलित कर सकते हैं।
शांतनु देशपांडे के विचार भले ही तीखे हों, लेकिन वे एक गहरी सच्चाई को उजागर करते हैं। उनके इस बयान ने न केवल भारतीय कार्यबल की कमजोरियों को सामने रखा, बल्कि इसे सुधारने की दिशा में एक सकारात्मक बहस की शुरुआत भी की है।
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